"...जो आनंद आप अपनी ध्यान की स्थिति में प्राप्त करते है , उसको बांटा जाना चाहिए , उसको दिया जाना चाहिए , दिखाया जाना चाहिए। यह आपके अस्तित्व में ऐसे बहना चाहिए जैसे की प्रकाश निकलता है हर रौशन दीप से। हमें कोई शपथ नहीं लेनी पड़ती यह कहने के लिए की यह एक प्रज्वलित दीप है , इसी प्रकार , एक संत को प्रमाणित नहीं किया जाना चाहिए की वो संत है। क्योंकि जो गहराई आप अपने अंदर हासिल करते है , वो सब जगह फ़ैल जाती है , यह ऐसी ही क्रिया और प्रतिक्रिया है।
जितनी अधिक गहराई आप हासिल करेंगे , प्रक्षेपण उतना ही अधिक होगा। एक सरल व्यक्ति , अत्यंत साधारण व्यक्ति , अत्यंत साधारण व्यक्ति , अनपढ़ व्यक्ति , ऐसा हो सकता है। आपको ध्यान में बहुत ज्यादा समय नहीं व्यतीत करना है , लेकिन जो भी समय आप व्यतीत करें , आपको जो भी प्राप्त होता है , वो बाहर दिखना चाहिए , कैसे आप प्रक्षेपित करते है , और कैसे आप दूसरों को देते है। .."
( परम पूज्य श्री माताजी , देवी पूजा , सिडनी , ऑस्ट्रेलिया - १९८३ )
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